"Freedom and love go together. Love is not a reaction. If I love you because you love me, that is mere trade, a thing to be bought in the market; it is not love. To love is not to ask anything in return, not even to feel that you are giving something- and it is only such love that can know freedom."

-J.Krishnamurti
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“Forget all you know about yourself; forget all you have ever thought about yourself; start as if you know nothing”

-J.Krishnamurti

About K

Jiddu Krishnamurti (11 May 1895 – 17 February 1986) was an Indian philosopher, speaker, writer, and spiritual figure. Adopted by members of the Theosophical tradition as a child, he was raised to fill the advanced role of World Teacher, but in adulthood he rejected this mantle and distanced himself from the related religious movement.

He spent the rest of his life speaking to groups and individuals around the world; many of these talks have been published. He also wrote many books,among them The First and Last Freedom (1954) and Commentaries on Living (1956–60). His last public talk was in January 1986, a month before his death at his home in Ojai, California.

Krishnamurti asserted that “truth is a pathless land” and advised against following any doctrine, discipline, teacher, guru, or authority, including himself. He emphasized topics such as choiceless awareness, psychological inquiry, and freedom from religious, spiritual, and cultural conditioning.

His supporters — working through non-profit foundations in India, Britain, and the United States — oversee several independent schools based on his views on education, and continue to distribute his thousands of talks, group and individual discussions, and writings in a variety of media formats and languages.

K's teachings available in Hindi and other Indian Languages

कृष्णमूर्ति की शिक्षा का सार 1929 में दिए गए उस वक्तव्य में निहित है जब उन्होंने कहा था कि ‘सत्य एक पथहीन भूमि है।’ मनुष्य किसी भी संगठन, पंथ, धार्मिक मत, पुरोहित या कर्मकाण्ड के माध्यम से, या किसी दार्शनिक ज्ञान और मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के द्वारा उस तक नहीं पहुंच सकता है। सत्य को खोजने के लिए संबंधों के दर्पण में देखना होगा, अपने ही मन की वस्तुओं को समझना होगा, अवलोकन करना होगा। बौद्धिक विश्लेषण या आत्मविश्लेषण पर आधारित चीड़फाड़ से सत्य कभी हासिल नहीं होगा। धार्मिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत सुरक्षा के तौर पर मनुष्य ने अपने भीतर छवियों, प्रतिमाओं का निर्माण किया है। ये छवियां प्रतीकों, विचारों एवं धारणाओं के रूप में व्यक्त होती हैं। इन सबके बोझ तले मनुष्य की सोच, मनुष्य के रिश्ते और उसका दैनिक जीवन दबा रहता है। हमारी समस्याओं के मूल में यही है क्योंकि उन्हीं की वजह से मनुष्य एक दूसरे से कटा हुआ है, आपस में बंटा हुआ है। जीवन के बारे में उसकी समझ उन धारणाओं से निर्धारित होती है जो उसके मन में पहले से ही जड़ जमाए बैठी हैं। यह उसकी चेतना की सामग्री ही उसका पूरा वजूद है। यह सामग्री समस्त मानवता में एक समान है। नाम, रूप और अपने वातावरण से ग्रहण की गयी सतही संस्कृति ही उसकी वैयक्तिकता है। व्यक्ति का अनूठापन, उसकी पराकाष्ठा, सतही चीजों में नहीं है बल्कि चेतना की सामग्री से पूर्णतया मुक्त होने में है।

मुक्ति प्रतिक्रिया नहीं है और न ही चयन है। मनुष्य यह दिखावा करता है कि वह स्वतंत्र है क्योंकि वह चयन कर सकता है। मुक्ति तो ऐसा विशुद्ध अवलोकन है जहां कोई दिशा नहीं है, दंड और पुरस्कार का भय नहीं है। मुक्ति में कोई ध्येय नहीं है; मनुष्य के विकासक्रम के आखिरी चरण में आने वाली यह चीज नहीं है बल्कि पहले चरण में ही है। अवलोकन से यह पता लगना आरम्भ होता है कि हम मुक्त नहीं है। हमारे दैनिक जीवन की निर्विकल्प, चुनावरहित सजगता में ही मुक्ति मिलती है।
विचार समय है। अनुभव से, जानकारी से विचार का जन्म होता है, जो समय से अभिन्न है। समय मनुष्य का मनोवैज्ञानिक शत्रु है। हमारे कर्म जानकारी पर और इस प्रकार समय पर आधारित होते हैं, इसलिए मनुष्य सदा अतीत का दास बना रहता है।
व्यक्ति जब अपनी चेतना की गतिविधि के प्रति सजग होता है तो उसे विचारक और विचार, अवलोकनकर्ता और अवलोकित वस्तु, अनुभवकर्ता और अनुभव के बीच के विभाजन का पता चलता है। उसे यह पता चलेगा कि ऐसा विभाजन एक भ्रांति है।…इसके पश्चात् ही विशुद्ध अवलोकन सम्भव होगा जो कि अन्तर्दृष्टि है, जहां अतीत की कोई छाया नहीं है। यह समयातीत अंतर्दृष्टि मन में एक गहन, बुनियादी परिवर्तन लाती है
पूर्ण निषेध ही सृजन का, विध्यात्मक का सार है। उन सभी वस्तुओं का निषेध होने पर ही जो कि प्रेम नहीं हैं – जैसे कामना, सुखभोग – प्रेम अपनी करुणा और प्रज्ञा के साथ अस्तित्व में आता है।’’ 
(किसी संक्षिप्त वक्तव्य से यह बड़ा ही था लेकिन क्या इसे और संक्षेप में, और स्पष्टता से शब्दांकित किया जा सकता था? शायद इसमें उन्होंने छवि या प्रतिमा निर्माण पर उतना बल नहीं दिया है। हम सभी अपने और दूसरों के बारे में छवियां बनाते हैं और ये छवियां ही आपस में मिलती हैं, प्रतिक्रियाएं करती हैं और आहत होती हैं। सच्चे संबंधों में, निकट से निकट संबंधों में भी, ये छवियां अवरोध पैदा करती हैं।)

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